चलचित्र पर हो उचित अंकुश


                      चलचित्र पर हो उचित अंकुश


कलाकार अपनी कलात्मक शैली के लिए जाने जाते हैं ,फिर चाहे वह किसी भी विधा से जुड़े हुए हो गीत ,संगीत चलचित्र या फिर साहित्य । 
चलचित्र या सिनेमा और वेब सीरीज अधिकतर समाज में चल रही कहानियों को पर्दे पर दर्शाता है लेकिन वास्तविकता में क्या समाज में ऐसा नग्न, अभद्र, अश्लील सांप्रदायिक माहौल है । हमेशा से बिष्मय की स्थिति रही है ,चलचित्र को देखते हुए समाज का निर्माण हुआ या फिर समाज को देखते हुए चलचित्र का निर्माण! इसका सीधा उदाहरण सूचना एवं प्रसार क्रांति है । भारत सिनेमा के क्षेत्र में बड़ी ख्याति प्राप्त कर रहा है लेकिन वही अपनी संस्कृति परंपराओं को ठेस पहुंचाने वाले तमाम उदाहरण भी चलचित्र के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा है। एक सेकुलर देश होने के बावजूद भी वेब सीरीज सांप्रदायिकता की आग लगाने में पीछे नहीं है । सेक्रेट गेम टू में डायलॉग है "मुसलमानों को उठाने के लिए कोई वजह की जरूरत नहीं है" वहीं अमेज़न प्राइम की वेब सीरीज दी फीमेल मेन जो कि गोदरा हत्याकांड पर आधारित है उसमें एक पात्र कहता है "मुसलमान हूं ना इसलिए उठा लाए हो " आखिर क्यू इन वेब सीरीज के रचनाकार, निर्देशक, लेखक और कलाकार संप्रदायिकता को बढ़ा रहे हैं । और सवाल यह भी है कि इस पर न्याय उचित कानून क्यों नहीं है । अभिव्यक्ति की आजादी का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग कैसे संभव है । यह बात सहज ही भहस  का रूप ले लेगी वैसे भी रचनात्मक आजादी पर जितनी बहस आवश्यक है उतनी इस पर भी कि इसकीआजादी की सीमा क्या हो।
 वर्ष 2004 में एमएफ हुसैन से संबंधित एक केस में दिल्ली हाई कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जेडी कपूर ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था । कि अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है जो हर नागरिक के लिए अमूल्य है कोई भी कलाकार मानवीय संवेदनाओं को अलग-अलग तरीके से व्यक्त कर सकता है उसके मनोभावों को अभिव्यक्ति की सीमा से नहीं बांधा जा सकता ।  लेकिन कोई भी इस बात को भूल नहीं सकता कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही जिम्मेदारी भी । किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह इसका उपयोग उचित रूप में करें ,ना कि सिर्फ छोटे से कोने में एटीन प्लस की चेतावनी देकर कुछ भी दिखाता रहे।
 हमेशा से चलचित्र पर सवाल उठाए जाते हैं और जवाब में वही टाला मटोली वाले शब्द ऊंचे हो जाते हैं। वेब सीरीज को संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत लाना चाहिए और साथ ही फिल्मकारों को यह समझना चाहिए कि जीवन को तोड़ मरोड़ कर फिल्मों में नहीं दिखाया जा सकता, सरकार को पहल करके नियम बनाने चाहिए अन्यथा समाज का भिभत्स्य रूप देखने को मिलेगा। 


                         पारस पाठक