प्रेम और भक्ति
जिस प्रकार की मानसिकता विकसित हो रही है कहीं न कहीं यह हम सभी के लिए हानिकारक हो सकती है। आज प्रत्येक व्यक्ति दया ,क्षमा ,परोपकार ,आदि से दूर भाग रहा है। जबकि इसके विपरीत अंधविश्वास ,दुर्जनता ,क्रोध आदि की ओर अग्रसर हो रहा है। छोटी छोटी बातों पर नाराज़ हो जाते है गुस्सा करता है। गलती करने वाले को क्षमा नहीं कर सकते। एक बार जरूर सोचें कि क्या कोई इतना बड़ा अपराध हैं ,जो क्षमा योग्य नहीं ! आज के लोग प्रेम से भी घृणा करते है। और जो घृणा नहीं करते वो क्या प्रेम करते है ?नहीं वो भी प्रेम नहीं करते है। अनेकों का मानना है की प्रेम कभी भी पूर्ण नहीं होता और जो पूर्ण हो जाये वो प्रेम नहीं ।
अगर मानसिक संकीर्णताओं को छोड़ कर कहा जाये तो प्रेम ,भक्ति का ही पर्याय है। उदाहरण के लिए मिरा भी तो प्रेम दीवानी थी। और दूसरी ओर राधा अगर देखें तो ये स्पष्ट हो जायेगा की प्रेम भक्ति एक समान ही है। दोनों ने ही अपने आराध्य श्री कृष्णा को पाया। प्रेम का मतलब पाना नहीं उसी में खोना है। और ऐसे खोना की अपना मानव जीवन सार्थक हो जाये।
प्रेम प्रतीक्षा का स्वरूप है । प्रेम वो है जो कभी शब्दों से व्यक्त नहीं हो सकता है। यह शब्दों से परेय है, जीवात्मा को अनेक जीवात्मा से जोड़ने में सहायक है। प्रेम केवल नायक नायिका के मन में ही उत्पन्न भाव नहीं है बल्कि यह तो वो एहसास है जो समर्पण के लिए प्रेरित करता है। किसी शिष्य का अपने गुरु के प्रति समर्पण ही प्रेम है।
इस जीवात्मा को आखिर प्रतीक्षा किसकी होनी चाहिए। अपने प्रेमी की जिसको प्रतिदिन नैनो में देखता है। नहीं इस जीवात्मा को सिर्फ और सिर्फ उसी परमपिता परमात्मा की प्रतीक्षा रहती है। जिससे हम इतना दूर इस लोक में है।
हमारे पास अनेकों उदाहरण है कालिदास ,तुलसीदस मीराबाई , या सूरदास यह सभी लोगो बहुत ही विशेष प्रेमी थे। इन सभी ने अपने ईश्वर श्री कृष्णा को अपने काव्य में इस प्रकार व्यक्त किया कि जितना कोई आँखों से देखने वाला भी वर्णन या चित्रित नहीं कर सकता है।
जीवित रहने के लिये जितना जरूरी श्वांस लेना है। उतना ही जरूरी है कि प्रत्येक मनुष्य ,समस्त मानवजाति से प्रेम करे। ये दुनिया उसी ईश्वर की है। हम उसके ही है। मुझमें भी वो है तुझमें भी वो है तो फिर ये वैर केसा ।
दीपेंद्र कुमार