भरत का चरित्र बड़ा ही उत्तम और पवित्रता

[भरत के राम]


*************
भारत के भरत राम की अयोध्या 


लेख रामजी दुबे आजाद समाचार  संकेत संवाददाता करैरा -यों तो भरत के चरित्र से हम सब परिचित हैं, "इच्छवाकु" वंश मे भरत दो बार अवतरित हुए एक ने वीरता की मिशाल दी तो दूजे ने "धर्मत्व" की।


सनातन धर्म में परिवार परायणता और भाई बंधुत्व का अनुपम उदाहरण है "भरत" धर्म अर्थ और श्री का उत्कृष्ट समायोजन  है भरत ! श्री राम रूपी भवन में एक मजबूत नींव है भरत, राम भरत के बिना अधूरे हैं!


राम को वनवास पाने का जितना अनुनयनिय सुख था उससे पद्म गुना दुखी भरत थे जब उन्हें पता चला उन्हें भैया की अनुपस्थिति में अयोध्या का कार्यभार संभालना है!


ज्ञात हो की वनाचरण के समय मेरे राम भूमी पर कुश की बनी चटाई बर सोते थे तो वहीं अयोध्या की चकाचौंध से तीन कोश दूर "नंदीग्राम" के वनस्थली मे भाई भरत कुटिया बनाकर चौदह वर्षों तक रहे! और भरत ने भी वही श्रंगार "मुनिभेष" धारण किया जो राम का था, और वो भूमी मे गड्ढ़े के अंदर सोते थे ताकी भरत राम के समकक्ष ना सोए।


राम के वनवास से राम प्रसन्न थे क्यों की राम का ध्येय ही यही था और लक्ष्मण भी साथ निकल लिए ! शत्रुघ्न घर के दुलरुआ थे तो भैया सबसे अधिक वन का विरह जद्यपि किसी ने भोगा तो वो था राम का भरत।


गोस्वामी जी ने पूरे रामचरित मानस में बस एक बार "धरम धुर धीरा" का संबोधन किया और वो भरत के लिए था।


         नंदिगाँव करि परन कुटीरा, 
         कीन्ह निवास धरम धुर धीरा।


चित्रकूट में भरत ने राम की चरण पादुका को "महाराज" घोषित कर दिया और राम  प्रण लिया बोले भाई साहब अगर चौदह बरस से एक भी दिन विलंब हुआ तो ये भरत "आत्मदाह" कर लेगा।


और राम भरत को भलि भांति जानते थे की वचन पालन मे भरत दशरथ से भी एक सीढ़ी उपर था।


रावण वध के बाद जब राम अयोध्या वापस आते हैं तो चौदहवें बरस के आखिरी माह ही अमावस्या थी यानी की अगला सुर्योदय पंद्रहवें बरस मे प्रवास करा देता।


राम भरत को भली भांति जानते थे अतः उन्होंने हनुमान से संदेशा भेजा कि जाकर के सामान्य रूप से भरत को सूचित करो की उसका भाई आ रहा है ।
और हनुमान से बेहतर "फ़नकार" पूरे दल मे कोई नही था।


इधर भरत चिंता मे डूबे थे की.....


      कारन   कवन   नाथ   नहिं  आयउ 
      जानि कुटिल किधौं मोहि बिसरायउ।
      अहह  धन्य  लछिमन  बड़भागी 
      राम  पदार  बिंदु  अनुरागी।


भारत की चिंता बढ़ती जा रही थी उन्होंने गुरुदेव से कहा कि लक्ष्मण बड़ा बड़ भागा है गुरुदेव कि उसे प्रभु राम के चरण को रोज पकड़ने का अवसर प्राप्त होता है यह शाम अंतिम है इसके उपरांत मैं अपनी देह का त्याग कर लूंगा !और शत्रुघ्न को आप राजा बना देना।


तब तक भरत की कुटिया के बाहर एक आवाज गूंजती है जय-जय श्रीराम जय-जय श्रीराम......


ब्राह्मण भेष में हनुमान खड़े थे पर्ण कुटिया के दरवाजे पर।


हनुमान को देखते ही भरत के नयनों गंगा यमुना धार बह चुकी थी अब उन्हें समझने में बिल्कुल विलंब नहीं लगा कि उनके जीवन की सबसे बड़ी प्रसन्नता उनका भगवान उनका राजा आने वाला है।


      रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता 
      आयउ  कुशल  देवमुनि  त्राता।


पूरा देवलोक अयोध्या की ओर नजरें टिकाए बैठा था, तीनो लोक टकटकी लगाए थे! सृष्टि की रचना के बाद का सबसे मनोहर दृश्य था प्रभु श्री राम अपने जन्म के ध्येय को पूरा करके वापस अपने घर अपने गांव वापस आ रहे थे !


देखते ही देखते पूरे अवध में गुंजायमान हो गया...


मेरे राम आ रहे हैं मेरे राम आ रहे हैं मेरे राम आ रहे हैं मेरे राम आ रहे हैं मेरे राम आ रहे हैं ।


भरत के कांपते होंठों से भी निकल पड़ा!


"मेरे राम आ गये" ।