जीवन एक संघर्ष


         पैरों से अपंग वृद्धजन को देखकर रोंगटे खड़े हो गए


व्यक्ति की गरिमा, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा उस वक्त फीकी पड़ जाती है जब बुढ़ापा जिंदगी में शामिल हो जाता है । बुढ़ापा बचपन का  पुर्नआगमन हुआ करता है मगर  कैसा बचपन जिसमें हंसी ठिठोली करने का मन तो करें लेकिन शारीरिक दुर्बलता के कारण लाठी का सहारा लेना पड़े जिसमें समाज का बोध हो ,गरिमा ,मान, सम्मान ,प्रतिष्ठा की भी  चिंता हो। 


ऐसे में जीवन का सारा सार समेटे  हुए व्यक्ति हताशा के बादलों में उम्मीद की बारिश को ढूंढता है और अंतता सोचता है की उद्यमेन ही सिध्यंति कार्याणि ना मनोरथे।वास्तविकता में संघर्ष ही जीवन का मूल अर्थ है ।
बीते कुछ दिनों पहले वृद्धजन से मुलाकात हुई। सुबह का वक्त था मैं घूमने निकल ही रहा था की सामने से जिंदादिली शख्सियत हाथों में लाठी पैरों से अपंग लेकिन फिर भी साहस इतना की मंदिर की सीढ़ियों से बेखौफ तरीके से उतरते हुए दिखें । आंखों के सामने यह दृश्य एक तरफ रोंगटे खड़े कर देने वाला था। तो दूसरी ओर कुछ कर गुजरने का जज्बा जैसे आज भी उन कांपते हुए हाथों में दिख रहा था।  कुछ पल मैं मंत्रमुक्त होकर देखता रहा और एक ही सवाल जो मन मे बार-बार आ रहा था कि क्या बुढ़ापा सच में बचपन का पुर्नआगमन  है!  या फिर  जीवन संघर्ष का नाम है ।


वहीं इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते कि व्यक्ति इच्छा ,महत्वकांक्षा ,आकांक्षा को पूरा करने उपलब्धियां पाने और उद्देश्य पूरा करने के लिए संघर्ष करता है। और अंततः बुढ़ापे में खुद को असहाय और दुर्बल महसूस करता है। ऐसे में कोई बिरला ही इन सारी परेशानियों को छोड़ समाज में नया उदाहरण प्रस्तुत करता है ।